चिंता कविता 10th हिंदी [ स्वाध्याय भावार्थ रसास्वादन ]
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छॉंह,
एक पुरुष, भीगे नयनोंं से देख रहा था प्रलय प्रवाह ।
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता-कहो उसे जड़ या चेतन ।
दूर-दूर एक विस्तृत था हिम स्तब्ध उसी के हृदयसमान,
नीरवता-सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान ।
तरुण तपस्वी-सा वह बैठा साधन करता सुर स्मशान,
नीचे प्रलयसिंधु लहरों का होता था सकरुण अवसान ।
उसी तपस्वी-से लंबे थे देवदारु दो चार खड़े,
हुए हिम धवल, जैसे पत्थर बनकर ठिठुरे रहे अड़े ।
अवयव की दृढ़ मांस पेशियांॅ, ऊर्जस्वित था वीर्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमें संचार ।
चिंता कातर वदन हो रहा पौरुष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का बहता भीतर मधुमय स्रोत ।
बंधी महावट से नौका थी सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल प्लावन और निकलने लगी मही ।
निकल रही थी मर्म वेदना करुणा विकल कहानी-सी,
वहांॅ अकेली प्रकृति सुन रही, हंॅसती-सी पहचानी-सी ।
“ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कंप-सी मतवाली ।
हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खललेखा,
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल माया की चल रेखा ।
आह! घिरेगी हृदय लहलहे खेतों पर करका घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में सबके तू निगूढ़ धन-सी ।
बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम !
अरी पाप है तू, जा, चल जा यहांॅ नहीं कुछ तेरा काम ।
विस्मृत आ, अवसाद घेर ले, नीरवते ! बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से आज शून्य मेरा भर दे ।’’
‘‘चिंता करता हंूॅ मैं जितनी उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत मंे बनती जातीं रेखाएँ दुख की ।
अरे अमरता के चमकीले पुतलो! तेरे वे जयनाद
कांॅप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बनकर मानो दीन; विषाद ।
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हॉंतिरते केवल सब विलासिता के नद में ।
वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावर
चिंता कविता 10th हिंदी [ स्वाध्याय भावार्थ रसास्वादन ]
जन्म ः १88९, वाराणसी (उ.प्र.)
मृत्यु ः १९३७, वाराणसी (उ.प्र.)
परिचय ः जयशंकर प्रसाद जी हिंदी साहित्य के छायावादी कवियों के चारप्रमुख स्तंभों में से एक हैं । बहुमुखी
प्रतिभा के धनी प्रसाद जी कवि, नाटककार, कथाकार, उपन्यासकारतथा निबंधकार के रूप में प्रसिद्ध हैं ।
प्रमुख कृतियाँ ः ‘आँसू’, ‘लहर’ (काव्य) ‘कामायनी’ (महाकाव्य), ‘स्कंदगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’, ‘ध्वसरु ्वामिनी’(ऐतिहासिक नाटक), ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘इंद्रजाल’ (कहानी
सग्रह), ं ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’ (उपन्यास) आदि ।
प्रस्तुत पद्यांश कामायनी महाकाव्य से लिया गया है । ‘जल प्रलय’ समाप्त हो गया है । पानी धीरे-धीरे उतर रहा है । महाराज मनु हिमालय की ऊँची चोटी पर बैठे हैं । उनके माथे पर चिंता की रेखाएँ उभरआई हैं । जयशंकर प्रसाद जी ने उसी समय की स्थिति, मनु की मनोदशा, उनकी चिंता आदि का वर्णन इस
पद्यांश में किया है । यहाँ कवि द्वारा किया गया वर्णन, प्रतीक-बिंब, रूपक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
- उत्तुंग वि.(सं.) = बहुत ऊँचा
- ऊर्जस्वित वि.(सं.) = बलवान, तेजवान
- स्फीत वि.(सं.) = समृद्ध, संपन्न, बढ़ा हुआ
- मर्मपुं.(सं.) = स्वरूप, रहस्य
- व्याली स्त्री.सं. (सं.) = वन की रानी बाघिन
- करका पुं.सं.(सं.) = ओला, पत्थर
चिंता कविता 10th हिंदी [ स्वाध्याय भावार्थ रसास्वादन ]
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