पल्लवन संपूर्ण स्वाध्याय | Allavan samporn svaadhyaay | [12th लेखक रचना स्वाध्याय ]

पल्लवन संपूर्ण स्वाध्याय | Allavan samporn svaadhyaay | [12th लेखक रचना स्वाध्याय ]

पल्लवन संपूर्ण स्वाध्याय | Allavan samporn svaadhyaay | [12th लेखक रचना स्वाध्याय ]

पाठ पर आधारित 

पाठ पर आधारित | Q 1 | Page 84
1) पल्लवन की प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए ।
SOLUTION
पल्लवन की प्रक्रिया के निम्नलिखित सोपान हैं:
(१) सर्वप्रथम मूल विषय के वाक्य, सूक्ति, काव्यांश अथवा कहावत को भली-भाँति पढ़ा जाता है। उनके भाव को समझने का प्रयास किया जाता है। उन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। अर्थ स्पष्ट होने पर एक बार पुनः विचार किया जाता है।
(२) पल्लवन करने से पूर्व मूल तथा गौण विचारों को समझ लेने के बाद विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बनाई जाती है। मूल तथा गौण विचारों के पक्ष-विपक्ष में भली प्रकार सोचा जाता है। फिर विपक्षी तर्कों को काटने के लिए तर्कसंगत विचारों को एकत्रित किया जाता है। इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कोई भी भाव अथवा विचार छूटने न पाए। उसके बाद संगीत विचारों को हटाकर तर्कसंगत विचारों को संयोजित किया जाता है।
(३) शब्द सीमा को ध्यान में रखते हुए सरल और स्पष्ट भाषा में पल्लवन किया जाता है। पल्लवन लेखन में वाक्य छोटे होते हैं। लिखित रूप को पुनः ध्यानपूर्वक पढ़ा जाता है। पल्लवन विस्तार में लिखा जाता है। पल्लवन लेखन में परोक्ष कथन, भूतकालिक क्रिया के माध्यम से सदैव अन्य पुरुष में लिखा जाता है। पल्लवन में लेखक के मनोभावों का ही विस्तार और विश्लेषण किया जाता है।

2) पल्लवन की विशेषताएँस्पष्ट कीजिए ।
SOLUTION
पल्लवन का अर्थ है विस्तार अथवा फैलाव। यह संक्षेपण का विरुद्धार्थी है। पल्लवन की विशेषताओं को इस प्रकार लिखा जा सकता है:
(१) कल्पनाशीलता - पल्लवन करते समय लेखक कल्पनाशीलता का सहारा लेता है। कल्पना के सहारे सूक्ति अथवा उद्धरण का भाव विस्तार करता है। परंतु पल्लवन में विषय का विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत किया जाता है।
(२) मौलिकता - पल्लवन में मौलिकता का ध्यान रखा जाता है।
(३) सर्जनात्मकता - पल्लवन में लेखक को सर्जनात्मकता का अवसर व संतोष दोनों मिलते हैं।
(४) प्रवाहमयता - पल्लवन लेखन में प्रवाहमयता होना आवश्यक है। लेखक इस बात का ध्यान रखता है कि पाठक को पढ़ते समय बीच-बीच में किसी प्रकार का अवरोध अनुभव न हो।
(५) भाषा-शैली - पल्लवन करते समय लेखक को भाषा ज्ञान व भाषा का विस्तार जानना आवश्यक है। साथ ही विश्लेषण, संश्लेषण, तार्किक क्षमता के साथ-साथ अभिव्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता होती है।
(६) शब्द चयन - पल्लवन में शब्द चयन का बहुत अधिक महत्त्व है। तर्कसंगत और सम्मत शब्दों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। लेखक को शृंखलाबद्ध, रोचक एवं उत्सुकता से परिपूर्ण वाक्य लिखने चाहिए। छोटे-छोटे वाक्यों या वाक्य खंडों में बंद विचारों को खोल देना, फैला देना, विस्तृत कर देना ही पल्लवन है।
(७) क्रमबद्धता - पल्लवन में विचारों में, अभिव्यक्ति में क्रमबद्धता का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता है।
(८) सहजता - पल्लवन का सहज रूप सभी को आकर्षित करता है।
(९) स्पष्टता - पल्लवन में स्पष्टता का होना अति आवश्यक है। जिस भी विचार, अंश, लोकोक्ति आदि का पल्लवन किया जा रहा है, केंद्र में वही रहना चाहिए। पाठक को पल्लवन पढ़ते समय ऐसा प्रतीत न हो कि मूल विचार कुछ और है, जबकि पल्लवन का प्रवाह किसी अन्य दिशा में जा रहा है।


व्यावहारिक प्रयोग

व्यावहारिक प्रयोग | Q 1 | Page 84
1) ढाई आखर प्रेम का पढ़ेसो पंडित होइ’’, इस पंक्ति का भाव पल्लवन कीजिए ।
SOLUTION
संत कबीर दास जी का बड़ा प्रसिद्ध दोहा है -
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होइ।।

इस छोटे-से दोहे में जीवन का ज्ञान है। कबीर जी का कहना है कि पुस्तकें पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। परंतु केवल पुस्तकें पढ़कर प्रभु का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। जब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हो जाए, किसी को पंडित या ज्ञानी नहीं माना जा सकता। अनगिनत लोग जीवन भर ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करते हुए संसार से विदा हो गए परंतु कोई पंडित या ज्ञानी नहीं हो पाया। क्योंकि वे कोरे ज्ञान प्राप्ति के लोभ में ही पड़े रहे। बड़े-बड़े ग्रंथ पढ़कर भी जो प्रेम करना नहीं सीखा, वह अज्ञानी है।

प्रेम शब्द केवल ढाई अक्षर का है, जिसने उसे पढ़ लिया, अर्थात जिसने प्रभु से, जीवमात्र से प्रेम कर लिया, उसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया। वास्तव में वही पंडित है। जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा, उसे कुछ और जानना शेष नहीं रहता, क्योंकि उसने परम ज्ञान को पा लिया। प्रेम ही ज्ञान है, प्रेमी ही असली ज्ञानी है। जिसने प्यार को पढ़ लिया, उसके लिए संसार में कुछ भी शेष नहीं रहता। जिसने प्रेम रस पी लिया, उसकी हर प्रकार की क्षुधा शांत हो गई। प्राणिमात्र को प्रेम करने वाला व्यक्ति जब दूसरों के कष्ट, दुख और पीड़ाएँ देखता है, तो उसके नेत्र छलछला उठते हैं। वह जहाँ भी स्नेह का अभाव देखता है, वहीं जा पहुँचता है और कहता है - लो मैं आ गया। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। ऐसे प्रेमी अंतःकरण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्योछावर कर देता है। प्रेम संसार की ज्योति है। जीवन के सुंदरतम रूप की यदि कुछ अभिव्यक्ति होती है, तो वह प्रेम ही है।

प्रेम वह रचनात्मक भाव है, जो आत्मा की अनंत शक्तियों को जाग्रत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है। इसीलिए विश्व प्रेम को ही भगवान की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। परमेश्वर की सच्ची अभिव्यक्ति ही प्रेम है। प्रेम की भावना का विकास करके मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।

2) लालच का फल बुरा होता है’, इस उक्ति का विचार पल्लवन कीजिए ।
SOLUTION
लालच का फल सदैव बुरा होता है। लालच दूसरों का हक मारने की प्रवृत्ति है। लालच का अर्थ ही है अपनी आवश्यकता से अधिक पाने का प्रयास करना। और जब हम अपनी आवश्यकता से अधिक हासिल करने का प्रयास करते हैं तो कहीं न कहीं किसी का हक मार रहे होते हैं। लालच हमारे चरित्र का हनन भी करता है। लालच करने से भले ही हमें त्वरित लाभ होता दिखे लेकिन अंत में लालच से नुकसान ही होता है।

जीवन में अनेक अवसरों पर हमारे साथ ऐसा होता है जब हम किसी बात पर लालच कर बैठते हैं। और अधिक पाने की लालसा में हम ऐसा कुछ कर बैठते हैं कि हमारे पास जो कुछ होता है हम उसे भी गँवा बैठते हैं। लालच ऐसी बुरी चीज है कि उसके फेर में पड़कर मानव कई बार मानवता तक को ताक पर रख देता है। मानव जीवन में कामनाओं और लालसाओं का एक अटूट सिलसिला चलता ही रहता है। सब कुछ प्राप्त होने के बावजूद कुछ और भी प्राप्त करने की लालसा से मनुष्य जीवनपर्यंत मुक्त नहीं हो पाता। जो स्वभाव से ही लालची होता है, उसे तो कुबेर का कोष भी संतुष्ट नहीं कर सकता। दुनिया में अगर किसी भी रिश्ते में लालच है तो वह रिश्ता अधिक समय तक नहीं चल पाता। लालच के कारण हमारे सभी रिश्ते-नाते भी बिगड़ जाते हैं। जब हम लालच करते हैं तो अपने परिवार, यार-दोस्तों सभी की नजर में गिर जाते हैं। लोग हम पर भरोसा करना बंद कर देते हैं। लालची व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता। परिणामस्वरूप कभी किसी तरह की सहायता की आवश्यकता हो तो भी लालची मनुष्य की सहायता के लिए कोई खड़ा नहीं होता।

यदि जीवन में आगे बढ़ना है, सफल होना है तो एक अच्छा इन्सान बनना होगा। दूसरों के बारे में सोचना होगा। जो व्यक्ति लालच करता है, वह कामयाबी से कोसों दूर रहता है। एक-न-एक दिन लालच का दुष्परिणाम सामने आता ही है। अगर समय रहते लालच की प्रवृत्ति को त्याग देंगे तो लालच के दुष्परिणाम से बच भी सकते हैं। इसके लिए हमें सदैव लालच करने से बचना चाहिए। अगर किसी लालच के जाल में फँस भी गए, तो समय रहते उससे बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए। हमें लालच को त्याग देना चाहिए।

पल्लवन संपूर्ण स्वाध्याय | Allavan samporn svaadhyaay | [12th लेखक रचना स्वाध्याय ]


लेखक परिचय ः डॉ. दयानंद तिवारी जी का जन्म १ अक्तूबर १९६२ को महाराष्ट्र में जिला रायगड के खोपोली गाँव में  हुआ । आप सफल अध्यापक होने के साथ-साथ समाजशास्त्री तथा प्रतिबद्ध साहित्यकार के रूप में भी चर्चित हैं । विविध  विषयों पर किए जाने वाले गहन चिंतन के फलस्वरूप आप आकाशवाणी और दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनलों पर आयोजित परिचर्चाओं में सम्मिलित होते रहे हैं । महाविद्यालयीन समस्याओं के प्रति आप निरंतर जागरूक रहते हैं । अध्ययन-अध्यापन  आदि शैक्षिक विषयों को लेकर आपका लेखन कार्यनिरंतर समाज को दिशानिर्देश करता है । आपने विभिन्न राष्ट्रीय तथा  अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में समसामयिक विषयों पर मंतव्य रखा है । आपकी भाषा अत्यंत संप्रेषणीय और प्रभावोत्पादक है ।

प्रमुख कृतियाँ ः ‘साहित्य का समाजशास्त्र’, ‘समकालीन हिंदी कहानी-विविध विमर्श’, ‘चित्रा मुद्गल के कथासाहित्य का  समाजशास्त्र’, ‘हिंदी व्याकरण’, ‘हिंदी कहानी के विविध आयाम’ आदि ।

एकांकी ः हिंदी साहित्य में एकांकी का विशिष्ट स्थान है । एकांकी को सरल भाषा में नाटक का लघु रूप कहा जा सकता  है । जीवन के किसी एक अंश, प्रसंग को एक ही अंक में प्रभावशाली ढंग से मंच पर प्रस्तुत करना एकांकी की विशेषता है ।  अपनी बात को व्यक्त करने हेतु वर्तमान समय में एकांकी को उपयोग में लाना लेखकों के लिए उपयुक्त सिद्ध होता है । 

पाठ परिचय ः यहाँ पल्लवन की प्रस्तुति ‘एकांकी’ विधा में की गई है । साहित्य शास्त्र में पल्लवन लेखन को उत्तम साहित्यकार का लक्षण माना गया है । प्रस्तुत पाठ में ‘पल्लवन’ अर्थात किसी उद्धरण, सूक्ति, सुवचन के विस्तारित अर्थ लेखन को अत्यंत सरल शैली में समझाया गया है । पल्लवन शब्द की अवधारणा का प्रतिपादन और उसका साहित्यशास्त्रीय  विवेचन प्राप्त हुआ है । पल्लवन लेखन के विविध अंगों और नियमों को स्पष्ट करते हुए व्यावहारिक हिंदी के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालता है ।



समय : प्रात: ११ बजे
स्थान : बारहवीं कक्षा
रंगमंच : (कक्षा मेंविद्यार्थी प्रवेश कर रहेहैं। कुछ विद्यार्थी आपस मेंबातेंकर रहेहैं। कुछ ऊँचेस्वर मेंएक-दूसरेकोपुकार रहे हैं। तभी हिंदी शिक्षक कक्षा में प्रवेश करतेहैं।)
सभी विद्यार्थी : (खड़ेहोकर) नमस्ते सर...।
अध्यापक : नमस्ते विद्यार्थियो... बैठ जाइए।हमारा  हिंदी का पाठ्यक्रम पढ़ाना पूर्ण हो गया  है। परीक्षाएँसमीप हैं। अब हमें प्रश्नपत्र केसभी प्रश्नों का आकलन एवंअध्ययन करना चाहिए । क्या आपने प्रश्नपत्र का  अवलोकन किया है?
रोशन : जी सर, प्रश्न पत्र का अध्ययन हमने भलीभाँति किया है।
अध्यापक : तो क्या प्रश्नपत्र की दृष्टि सेकोई ऐसा प्रश्न हैजो आपको उत्तर लिखनेकी दृष्टि सेकठिन जान पड़ता  है?
प्रतीक : सर प्रश्नपत्र में सारे प्रश्न बड़े ही सरल और आसान हैं ।
अध्यापक : यह तो बड़ी अच्छी बात है । लगता है आप लोगों ने प्रश्नपत्र की या फिर उसके अलग-अलग विभागों  के प्रश्नों को बारीकी से नहीं देखा है ।
शीतल : सर आपने बिल्कुल सही कहा है । व्यावहारिक हिंदी से संबंधित एक प्रश्न है जिसके उत्तर को लेकर मैं  मन में कठिनाई अनुभव कर रही हूँ ।
अध्यापक : मुझे लगता ही था कि व्यावहारिक हिंदी विभाग के किसी ना किसी प्रश्न को लेकर आपके मन में शंका  होगी ।
शीतल : जी सर, मैं ‘पल्लवन’ इस घटक को लेकर दुविधा अनुभव करती हूँ । पल्लवन किसे कहते हैं? इसका  उत्तर कैसे लिखा जाता है और इसकी व्याख्या क्या होती है?
अध्यापक : विद्यार्थी मित्रो, क्या पल्लवन घटक आप सभी को कठिन नहीं जान पड़ता है? 
प्रतीक, रोशन : (एक साथ) जी सर, हमारा ध्यान इस घटक से थोड़ा हट गया था । हम सभी आपसे निवेदन करते हैं कि आप पल्लवन पर विस्तार में प्रकाश डालिए ।
अध्यापक : फिर भी रोशन, पल्लवन से क्या तात्पर्य है? तुम इस विभाग के बारे में क्या जानते हो?
रोशन : हाँ ! मैं इतना जानता हूँकि पल्लवन लिखना भी एक कला है ।
अध्यापक : ‘पल्लवन’ बहुत कुछ है; इसे प्रत्येक लेखक, शिक्षक व विद्यार्थी को जानना चाहिए ।
गौरांश : इतनी जरूरी क्यों है पल्लवन की जानकारी?
अध्यापक : ऊपरी तौर पर पल्लवन सहज लगता है परंतु उसकी परिभाषा तथा विशेषताएँ जाने बिना इस कला को  कोई आत्मसात नहीं कर सकता ।
रोशन : आप इसकी परिभाषा पर प्रकाश डाल सकते हैं सर?
अध्यापक : हाँ हाँ, क्यों नहीं?  हिंदी में ‘पल्लवन’ शब्द अंग्रेजी 'Expansion' शब्द के प्रतिशब्द के रूप में आता है । ‘पल्लवन’ का अर्थ है - विस्तार अथवा फैलाव । यह संक्षेपण का विरुद्धार्थी शब्द है । जब किसी शब्द, सूक्ति, उद्‌धरण,  लोकोक्ति, गद्य, काव्य पंक्ति आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसका दृष्टांतों, उदाहरणों अथवा  काल्पनिक उड़ानों द्‌वारा २००-३०० शब्दों में विस्तार करते हैं तो उसे ‘पल्लवन’ कहते हैं । अर्थात  विषय का विस्तार करना ‘पल्लवन’ है ।
रिदिम : तो क्या पल्लवन का मतलब सिर्फ विषय का विस्तार करना है? अध्यापक : नहीं-नहीं, सिर्फ विस्तार नहीं ! उसकी और भी कुछ विशेषताएँ और नियम होते हैं ।
गौरांश : मैं कुछ समझा नहीं?
अध्यापक : आइए, मैं समझाता हूँ । हर भाषा में कुछ ऐसे लेखक होते हैं जो अपने विचारों को सूक्ष्म और संक्षिप्त रूप  में रखते हैं । उन्हें समझ पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता । ऐसे समय में पल्लवन के माध्यम से  उसे समझाया जा सकता है ।
रोशन : तो क्या पल्लवन से तात्पर्य ‘निबंध’ है? अध्यापक : नहीं ! कई लोग निबंध और पल्लवन को एक मानने की गलती करते हैं । वास्तव में इन दोनों में अंतर है । निबंध में किसी एक विचार को विस्तार से लिखने के लिए कल्पना, प्रतिभा और मौलिकता का  आधार लिया जाता है । पल्लवन में भी विषय का विस्तार होता है परंतु पल्लवन में विषय का विस्तार एक निश्चित सीमा के अंतर्गत किया जाता है ।
रिदिम : सर, पल्लवन में क्या विचार के साथ-साथ भाषा विस्तार पर भी ध्यान देना होता है? अध्यापक : हाँ, बिलकुल सही प्रश्न पूछा ! मैं इसपर आ ही रहा था । वैसे भी भाषा का विस्तार करना एक कला । इसके लिए भाषा के ज्ञान के अलावा विश्लेषण, संश्लेषण, तार्किक क्षमता के साथ-साथ  अभिव्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता होती है । इसमें भी आख्याता के प्रत्येक अंश को विषयवस्तु की गरिमा के अनुकूल विस्तारित करना होता है । भाव विस्तार को भी पल्लवन कहा जाता है ।
तन्वी : सर जी, क्या पल्लवन में भाव विस्तार के साथ-साथ चिंतन भी होता है?
अध्यापक : अच्छा प्रश्न पूछा तुमने, पल्लवन में भाव विस्तार के साथ चिंतन का स्थान भी महत्त्वपूर्ण होता है । संसार  में जितने महान चिंतक, साहित्यिक, विचारक हैं; उनके गहन चिंतन के क्षणों में जिन विचारों और  अनुभूतियों का जन्म होता है; उसमें सूत्रात्मकता आ जाती है । सरसरी दृष्टि से पढ़ने पर उसका सामान्य अर्थ ही समझ में आता है, किंतु उसके सम्यक अर्थबोध एवं अर्थ विस्तार को समझने के लिए हमें उसकी  गहराई में उतरना पड़ता है ! ज्यों-ज्यों हम उस गंभीर भाववाले वाक्यखंड, वाक्य या वाक्य समूह में गोता  लगाते हैं, त्यों-त्यों हम उसके मर्मस्पर्शी भावों को समझने लगते हैं । अर्थात छोटे-छोटे वाक्यों या वाक्य खंडों में बंद विचारों को खोल देना, फैला देना, विस्तृत कर देना ही पल्लवन है ।
रोशन : हम जैसे विद्यार्थियों के लिए पल्लवन कला को आत्मसात करने की क्या आवश्यकता है? हम तो  साहित्यकार नहीं हैं । इस संदर्भ में जानकारी दीजिए न सर !
अध्यापक : रोशन ! तुम अच्छे-अच्छे प्रश्न करते हो । यह जिज्ञासा सराहनीय है । इसपर चर्चा होनी ही चाहिए ।
रोशन : जी सर ! हमें इस विषय की भी जानकारी चाहिए ।
अध्यापक : वर्तमान युग विज्ञान का युग है । आज के बच्चेवैज्ञानिक युग में पल रहे हैं । हमारे साहित्य में लेखक,  विचारक, कवि अपने मौलिक विचारों को व्यक्त करते हैं । हम उनके विचारों को समझ नहीं सकते, तब 
 ल्लवन हमारी सहायता करता है । परंतु बच्चो ! केवल विषयगत ज्ञान होना अनिवार्य नहीं होता है  अपितु आज के युवाओं के लिए अनेक क्षेत्रों का प्रवेश द्‌वार तैयार हो जाता है । पल्लवन व्यक्तित्व निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका तैयार कर सकता है ।
तन्वी : वह कैसे?
अध्यापक : अब गौर से सुनो, शारीरिक विकास के साथ-साथ बौद्‌धिक विकास भी आवश्यक होता है । केवल  शिक्षा तथा साहित्य में ही पल्लवन का महत्त्व नहीं है बल्कि उत्कृष्ट वक्ता, पत्रकार, नेता, प्रोफेसर,  वकील आदि पद प्राप्त करने के लिए इस कला से अवगत होना आवश्यक है । इतना ही नहीं;  कहानी लेखन, संवाद-लेखन, विज्ञापन, समाचार, राजनीति तथा अनेक व्यवसायों में भी पल्लवन का  उपयोग होता है । हमारे कैरियर की दृष्टि से भी पल्लवन उपयुक्त है ।
मितवा : सर जी, कितनी अच्छी और महत्त्वपूर्ण जानकारी आप दे रहे हैं लेकिन मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है कि पल्लवन की विशेषताएँ क्या होती हैं?
अध्यापक : बताता हूँ । इन्हें अपनी काॅपी में लिख सकते हैं । चलिए, मैं पल्लवन की विशेषताएँ बोर्ड पर लिखता  हूँ । पल्लवन की विशेषताएँ : (१) कल्पनाशीलता (२) मौलिकता (३) सर्जनात्मकता (4) प्रवाहमयता  (5) भाषाशैली (६) शब्दचयन (७) सहजता (8) स्पष्टता (९) क्रमबद्धता
लड़की : सर जी, क्या पल्लवन लिखने की कोई अलग शैली होती है?
अध्यापक : हाँ, पल्लवन लिखने की निम्न शैलियाँ प्रचलित हैं -
(१) इसमें विषय प्रवर्तन प्रथम वाक्य से ही प्रारंभ हो जाता है । इसमें इधर-उधर बहकने एवं लंबी-चौड़ी भूमिका बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती । प्रथम वाक्य से ही श्रृंखलाबद्ध रोचकतापूर्ण एवं  उत्सुकता भरे वाक्य लिखने चाहिए । 
(२) कुछ विद्‌वान ऐसा मानते हैं कि प्रारंभिक दो-तीन वाक्यों की भूमिका बनानी चाहिए, मध्य के  दस-बारह वाक्यों में विषय प्रतिपादित करें तथा अंतिम दो-तीन वाक्यों में उपसंहार प्रस्तुत करें ।
रोशन : सर, क्या पल्लवन की प्रक्रिया भी अलग होती है? इस संदर्भ में भी संक्षिप्त में जानकारी दीजिए न !
अध्यापक : वैसे पल्लवन की जानकारी लेते-लेते उसकी प्रक्रिया पर भी हमारी चर्चा हुई है । फिर से थोड़ा स्पष्ट  करता हूँ ।
 (१) विषय को भली-भाँति पढ़ना, समझना, ध्यान केंद्रित करना, अर्थ स्पष्ट होने पर पुन: सोचना ।
(२) विषय की संक्षिप्त रूपरेखा बनाना, उसके पक्ष-विपक्ष में सोचना, फिर विपक्षी तर्कों को काटने हेतु  तर्कसंगत विचार करना । उसके बाद तर्कसंगत तथा सम्मत विचारों को संयोजित करना तथा असंगत  विचारों को हटाकर अनुच्छेद तैयार करना ।
(३) शब्द पर ध्यान देकर शब्दसीमा के अनुसार पल्लवन करना और अंत में लिखित रूप को पुन: ध्यान  देकर पढ़ना । और एक बात विद्यार्थियों ! पल्लवित किए जा रहे कथन को परोक्ष कथन और भूतकालिक  क्रिया के माध्यम से अन्य पुरुष में कहना चाहिए । उत्तम तथा मध्यम पुरुष का प्रयोग पल्लवन में नहीं  होना चाहिए ।
रोशन : सर जी ! अब तो हम पल्लवन लिख सकते हैं । आप हमें पंक्तियाँ दीजिए, हम पल्लवन तैयार करेंगे ।
अध्यापक : अरे रोशन, इतनी जल्दी मत करो । पहले उदाहरण के लिए मैं आपको एक-दो पल्लवन बनाकर देता  हूँ । ठीक है न !
विद्यार्थी : (एक साथ) जी सर !
अध्यापक : एक-एक करके आपको जो कविता, दोहे, चौपाई,....... जो भी याद है, उसे कहिए । मैं उनका  पल्लवन तैयार करके दिखाता हूँ ।  (कुछ क्षणों के पश्चात) क्या हुआ? नहीं सूझ रहा है? चलिए, पहला उदाहरण मैं आपको बताता हूँ । जैसे - निम्न पंक्ति का  पल्लवन करते हैं- ‘‘नर हो, न निराश करो मन को’’
 पल्लवन : यह सार्वभौमिक सत्य है कि मनुष्य संसार का सबसे अधिक गुणवान और बुद्‌धिसंपन्न प्राणी है । वह अपनी अद्भुत बुद्‌धि एवं अपने कौशल के बल पर इस संसार में महान से महान कार्य कर अपने  साहस और सामर्थ्य का परिचय दे चुका है । शांति, सद्भाव और समानता की स्थापना के लिए वह  प्रयासरत रहा । इन सबके पीछे उसका आंतरिक, मानसिक बल ही था । चूँकि मनुष्य विधाता की  सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वाधिक गुणसंपन्न कृति है । अत: उसे अपने जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए ।  यह तो मनुष्य का जीवन है कि जहाँ उसके जीवन में सुख है, वहाँ दु:ख भी है, लाभ है तो हानि भी है,  सफलताएँ हैं तो असफलताएँ भी हैं । यदि उसका मन ही पराजित हो जाएगा, थक जाएगा तो इस धरा  को स्वर्ग-सा कैसे बना पाएगा? उसके मन की इसी संकल्प-विकल्पमयी, साहसिक शक्ति को उसका  मनोबल कहा जाता है । जो उसे हर समय श्रेष्ठ बनने हेतु कर्म के लिए प्रेरित करता है । गीत : जी सर, अब हमें समझ में आ गया है । सर, मैं एक सूक्ति जानता हूँ । क्या आप उसका पल्लवन करके  दिखाएँगे? ‘‘अविवेक आपदाओं का घर है ।’’ 
अध्यापक : पल्लवन : विवेक, बुद्‌धि और ज्ञान मानव की बौद्‌धिक संपदा है । मानव जब कोई निर्णय लेता है तो उसे  सद्-असद्कारिणी बुद्‌धि की आवश्यकता होती है । विचारशून्य किए गए कार्य कष्टदायक होते हैं ।  मानव की सफलता के पीछे उसका विवेक कार्य करता है । हमें सोच-विचारकर ही कोई कार्य करना  चाहिए । बिना विचारे किया गया कार्य पश्चाताप का कारण बनता है । इसलिए हमें जो भी कहना है  उसका मनन करें, चिंतन करें । जो कुछ भी कहें, उसे सोच-समझकर विवेक की कसौटी पर कसकर ही कहें क्योंकि जीवन का आनंद विवेक से चलने में है । अविवेकी मूर्खतापूर्ण कार्य करता हुआ अपने जीवन  को स्वयं आपत्तियों से भर लेता है ।
तन्वी : सर, मैं भी एक पंक्ति बताती हूँ । कृपया उसका भी पल्लवन कीजिए- ‘‘सेवा तीर्थयात्रा से बढ़कर है ।’’
अध्यापक : ‘सेवा परमोधर्म है ।’ इस भावना को कौन नहीं स्वीकारता किंतु जब इस भाव की अवहेलना की जाती है, तब समाज में स्वार्थ और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । लोग सेवा को भूलकर तीर्थयात्रा के  लिए इस उद्देश्य के साथ निकल पड़ते हैं कि इससे उन्हें मोक्ष मिलेगा । लोग भूल जाते हैं कि सेवा का  भाव ही संपूर्ण मानवता को चिरकाल तक सुरक्षित कर सकेगा । सेवा समाज के प्रति कृतज्ञ लोगों का  आभूषण है । मानव सेवा एवं प्राणिमात्र की सेवा संपूर्ण तीर्थयात्राओं का फल देने वाली होती है । सेवा  के पात्र हमारे आस-पास ही मिल जाते हैं । तीर्थयात्रा का फल कब मिलेगा? क्या होगा? लेकिन सेवा  सद्यफल दामिनी है । ‘‘सेवा करे सो मेवा पावै ।’’ अत: सेवा धर्म अपनाएँ ।
अध्यापक : मुझे विश्वास है, आप लोगों ने पल्लवन को अच्छी तरह से समझ लिया है । अभी अच्छी तरह से चर्चा हो रही है हमारी, अब आप यह समझ ही गए कि पल्लवन मतलब जैसे बीज से पेड़, पेड़ से पल्लव,  पल्लव से डालियाँ विकसित होती हैं । उसी प्रकार भाषा में भी पल्लवन होता है । आपने पल्लवन के लिए अच्छे उदाहरण दिए लेकिन भक्तिकालीन निर्गुण विचारधारा के संत  कबीरदास को आप भूल गए । मैं उनके दोहे पर एक पल्लवन तैयार करूँगा । आप ध्यान से सुनिए ।
विद्यार्थी : जी सर, कबीरदास जी के दोहे का पल्लवन सुनने में हमें आनंद ही मिलेगा ।
अध्यापक : सुनिए, ‘‘जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोइ तू फूल ।’’ संसार में शुभचिंतक कम होते हैं; अहित करने वाले या हानि पहुँचाने वाले अधिक । ऐसे व्यक्तियों के  प्रति क्रोध आना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है । साधारण व्यक्ति यही करते हैं । अहित करने वाले का  हित सोचना, काँटे बिछाने वाले के लिए फूल बिछाना, मारने वाले को क्षमा करना एक महान मानवीय  विचार है । इसके पीछे अहिंसा की भावना छिपी हुई है । सबके प्रति मैत्रीभाव की साधना है । प्रकृति भी हमें यही शिक्षा प्रदान करती है । इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । वृक्ष को ही देखिए - पत्थर मारने वाले  को वृक्ष फल देता है । निष्पीड़न करने वाले को सरसों उपयोगी तेल देती है । पत्थर पर घिसा जाने वाला  चंदन सुगंध और शीतलता देता है । शत्रु को मित्र बनाने, विरोधियों का हृदय परिवर्तन करके उन्हें अनुकूल  बनाने का यही सर्वोत्तम और स्थायी उपचार है कि हम उत्पीड़क को क्षमा करें । जो हमारा अपकार करता  है, हम उसका भला करें । उसके मार्ग को निष्कंटक बनाएँ । उसमें फूल बिछा दें । फूल बिछाने वाला  सदैव लाभ में रहता है । काँटा बिछाने वाला स्वयं भी उसमें उलझकर घायल हो सकता  है । महान पुरुषों का भी यही मत है । अत: हम अपकारी के साथ उपकार करें ।
रोशन : सर जी, पल्लवन तो बड़ा रोचक होता है ।
लड़की : हाँ, आज तक पल्लवन से डर ही लगता था पर आज तो सारा डर निकल गया । अब हम अच्छी तरह से  पल्लवन कर सकते हैं ।
गीत : जी सर, आपका बहुत बहुत धन्यवाद । फिर से ‘पल्लवन’ विषय का सविस्तर पुनरावर्तन करा कर विषय  से संबंधित सारी आशंकाओं को आपने दूर किया ।
शीतल : जी सर, मैं पूर्ण प्रश्न पत्र को आसानी से लिखकर अच्छे अंक प्राप्त कर सकती हूँ; यह आत्मविश्वास  अब मुझे प्राप्त हो गया है ।
अध्यापक : मुझे भी खुशी हुई कि आपने पल्लवन के संदर्भ में इतने सारे प्रश्न किए । चलो ! आज बहुत जानकारी मिली है आपको । साहित्य की ऐसी ही रोचक जानकारी हम लेते रहेंगे । अब हम अपनी इस चर्चा को  विराम देते हैं ।
 

पल्लवन संपूर्ण स्वाध्याय | Allavan samporn svaadhyaay | [12th लेखक रचना स्वाध्याय ]

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